*भुतहा सी नज़र होने वाली यह बंद फैक्ट्री है। रानीबाग उत्तराखण्ड में एचएमटी की। किसी समय यह भारत का वक्त बताती थी। भारत की इकमात्र घड़ी कंपनी थी, भारत सरकार का उपक्रम थी। कभी इसकी घड़ी लेने के लिए सालों की वेटिंग होती थी।*
इस कंपनी के पास भारत के सर्वश्रेष्ठ डिज़ायनर थे, इंजीनियर थे। बस नहीं थी तो इच्छा शक्ति समय के साथ चलने की, ग्राहकों को भगवान मानने की। सारी दुनिया क्वार्ट्ज़ टेक्नोलॉजी में आ चुकी थी लेकिन एचएमटी की ज़िद थी कि वह मैन्युअल चाभी भरने वाली घड़ियाँ ही बनायेंगे। उसमे भी डिमांड सप्लाई का गैप इतना कि ग्राहकों को वर्षों इंतज़ार करना पड़ता था, रिश्वत देनी पड़ती थी।
कंपनी का मैनेजमेंट सब तरह से कमाता था। ग्राहकों से ब्लैक में पैसा ले कर। पॉवर फ़ुल लोगों को समय से घड़ी देकर एहसान कर और सबसे ज्यादा क्वार्ट्ज़ की इलेक्ट्रॉनिक घड़ियाँ न बना कर अवैध रूप से विदेशी कंपनियों को मार्केट का हिस्सा देकर। एक समय भारत में बिकने वाली अस्सी प्रतिशत घड़ियाँ अवैध रूप से भारत आती थीं। मज़ेदार बात थी कि उन घड़ियों के विज्ञापन आदि भी होते थे, फुल ऑफिस थे, बस वैध तरीक़े से भारत में बिक नहीं सकती थीं। ग्राहक भी वही ख़रीदते, दुकानदार भी वही बेचते, बस भारत सरकार का भ्रम था कि भारत में हम केवल एचएमटी की घड़ी ही बिकने देंगे।
इसके पीछे एक पहाड़ी नाला बहता है एचएमटी के कर्मचारी प्लास्टिक के डिब्बे में घड़ी के पुर्जे रख कर फेंक देते थे और उनके रिश्तेदार आगे जाकर उसे निकाल लेते थे और उसे घड़ी साजो को बेचते थे।
फिर एंट्री हुई टाटा की। टाइटन कंपनी आई। उन्होंने डिसाइड किया कि वह केवल इलेक्ट्रॉनिक घड़ी बनायेंगे। एचएमटी के पास उनसे मुक़ाबले की रणनीति यह कि हम सरकारी हैं सरकार से बोल किसी प्राइवेट कंपनी को न आने देंगे।
पर टाटा भी इतने हल्के न थे। टाइटन ने एचएमटी से ही रिआटायर्ड अधिकारी, इंजीनियर लिए और पचास वर्ष पुरानी कंपनी एचएमटी ने केवल एक वर्ष के अंदर अपनी बादशाहत खो दी और टाइटन नंबर एक कंपनी हो गई। बस तीन वर्षों के अंदर एचएमटी की घड़ी भारत में कोई मुफ़्त ख़रीदने वाला न बचा।
आज यह फैक्ट्री अपने गुजरे कल के इतिहास की गवाह है। गवाह है कि जो समय के साथ नहीं चलता है, ग्राहकों का सम्मान नहीं करता है एक दिन वह मिट्टी में मिल ही जाता है। भले ही कभी उसकी मोनोपोली रही हो।