: बिहार की पराजय के बाद कांग्रेस की जंग और चुनावी तंत्र पर उभरता संकट


नित्य समाचार👁👁

संपादकीय🙏🙏

👉बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद एक बार फिर वही पुराना शोर उठ खड़ा हुआ—कांग्रेस खत्म हो गई, राहुल गांधी अशुभ संकेत हैं, और विपक्ष का भविष्य धूमिल है। दिलचस्प यह है कि कई विश्लेषकों की नजर में भाजपा-नीत एनडीए की जीत से अधिक महत्व महागठबंधन की हार का है, मानो पूरा राजनीतिक परिदृश्य एक व्यक्ति की प्रभाव-अप्रभाव का मापक बन गया हो। लेकिन इस कोलाहल के बीच एक तथ्य नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता—कांग्रेस ने इस बार पराजय को चुपचाप स्वीकार करने के बजाय तुरंत मंथन, पुनर्गठन और प्रतिरोध की तैयारियाँ तेज़ कर दी हैं।

## हार के चार दिन बाद नई रणनीति: यह कांग्रेस पहले वाली नहीं

14 नवंबर को नतीजे आए और 18 नवंबर को दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय में 12 राज्यों के महासचिवों, प्रभारियों और प्रदेश अध्यक्षों की आपात बैठक बुला ली गई। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी दोनों ने इसमें भाग लिया।

इस बैठक में सिर्फ बिहार ही नहीं, बल्कि चुनाव आयोग की SIR (Special Intensive Revision) प्रक्रिया पर भी गहन पड़ताल हुई—यानी वह प्रक्रिया जिसने बिहार चुनाव के दौरान सबसे अधिक विवाद खड़ा किया और जिसकी निष्पक्षता पर देशभर में सवाल उठ रहे हैं।

## SIR बनाम राज्यों की आपत्ति: क्या मतदाता सूची छेड़छाड़ का नया प्रारूप?

चुनाव आयोग के अपने बुलेटिन के अनुसार, 12 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में अब तक 50.11 करोड़ गणना प्रपत्र बांटे जा चुके हैं। इन्हीं में तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य हैं जहाँ अगले साल चुनाव होने हैं—और जहाँ एसआईआर के खिलाफ सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है।

* तमिलनाडु में बीएलओ से लेकर तहसीलदार स्तर के अधिकारी तक एसआईआर का विरोध कर रहे हैं।
* केरल ने कहा है कि पंचायत चुनावों के बीच एसआईआर प्रशासनिक टकराव और भ्रम पैदा करेगा।
* पश्चिम बंगाल में भी एसआईआर को लेकर गंभीर आपत्तियाँ सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुँची हैं।

इन विरोधों की एक समान बात है—वैध मतदाताओं के नाम काटे जाने की आशंका। विपक्ष का आरोप है कि यही प्रक्रिया बिहार में हुई, और अब इसे अन्य राज्यों में दोहराने की कोशिश हो रही है।

## असम में अलग नियम, दक्षिण में अलग—क्या यह दोहरा मानदंड नहीं?

असम में भी अगले साल चुनाव हैं, लेकिन वहाँ आयोग ने केवल SR (Special Revision) लागू किया है, SIR नहीं। विपक्ष इसे भाजपा की राजनीतिक सुविधा के अनुसार अपनाए जा रहे “भिन्न मानदंड” के रूप में देख रहा है।

चुनाव आयोग जितने भी तकनीकी तर्क रखे, विपक्ष की यह शंका बनी हुई है कि SIR नामक यह प्रक्रिया “शुद्धिकरण” की आड़ में संगठित मतदाता-छँटाई का औजार बनती जा रही है।

## सड़कों पर उतरने की तैयारी—कांग्रेस अब रक्षात्मक नहीं

मंगलवार की बैठक में कांग्रेस ने दिसंबर के पहले सप्ताह में रामलीला मैदान में विशाल रैली करने का निर्णय लिया। पवन खेड़ा ने स्पष्ट कहा— “हम चुनाव आयोग के राजनीतिकरण का पर्दाफाश करेंगे। बिहार में जो हुआ वही नीति अब अन्य राज्यों में लागू की जा रही है। पाँच करोड़ हस्ताक्षर हमारे पास हैं, यह सिर्फ पार्टी का विषय नहीं—यह मतदाता अधिकारों की रक्षा की लड़ाई है।”

यह बयान केवल चुनावी आरोप नहीं, बल्कि एक व्यापक संस्थागत संकट की चेतावनी है।

## “यदि आयोग चुप रहा तो यह विफलता नहीं, संलिप्तता है” — खड़गे का सख्त संदेश

कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने कहा—

* भाजपा एसआईआर को ‘वोट-चोरी’ के औजार में बदल रही है।
* चुनाव आयोग यदि इस पर ध्यान नहीं देता तो वह अपनी संवैधानिक शपथ का उल्लंघन करेगा।
* संस्थानों की पक्षपातपूर्ण मशीनरी लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन रही है।

यह भाषा साधारण राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि सिस्टम के चरम क्षरण की ओर इशारा करती है—जहाँ चुनाव जैसे मूलभूत लोकतांत्रिक तंत्र पर भरोसा डगमगाने लगता है।

## बड़ी तस्वीर: यह लड़ाई सिर्फ कांग्रेस बनाम भाजपा नहीं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक रीढ़ की परीक्षा है

भारत की राजनीति में चुनाव आयोग अब तक सबसे अधिक विश्वसनीय संस्थानों में रहा है। लेकिन यदि SIR जैसी प्रक्रियाएं राजनीतिक रंग लेने लगें, और सत्ता पक्ष का लाभ बढ़ाने वाली बनती दिखें, तो सवाल सिर्फ चुनावों तक सीमित नहीं रहेगा—सवाल पूरा लोकतंत्र बनाम तंत्र पर खड़ा हो जाएगा।

बिहार में जो आरोप लगे—

* वैध मतदाताओं के नाम गायब
* आपत्तियों को अनसुना किया जाना
* पुनरीक्षण में पारदर्शिता की कमी
—अब वही चिंताएँ 12 राज्यों तक फैल चुकी हैं।

कांग्रेस का सड़क संघर्ष, सुप्रीम कोर्ट में लगातार याचिकाएँ, और राज्यों का प्रतिरोध—ये सब मिलकर संकेत देते हैं कि देश एक बड़े चुनावी-तंत्र संकट की ओर बढ़ रहा है।

## आने वाली लड़ाई सिर्फ चुनाव की नहीं, लोकतंत्र की बुनियादी विश्वसनीयता की लड़ाई है

कांग्रेस ने संयम छोड़कर संघर्ष का रास्ता चुना है। भाजपा अपनी चुनावी मशीनरी पर भरोसा किए बैठी है। चुनाव आयोग अपने निर्णयों की सफाई देने के बजाय प्रक्रियाएँ और तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है।

लेकिन सवाल सिर्फ इतना है— “क्या भारत का मतदाता खुद तय करेगा कि वह लोकतंत्र में कहाँ खड़ा है, या यह निर्णय संशोधित सूचियाँ, अस्पष्ट प्रक्रियाएँ और राजनीतिक सुविधा तय करेंगी?”

एसआईआर पर उभरती यह लड़ाई 2024 के बाद भारत के लोकतंत्र की सबसे निर्णायक परीक्षा बन सकती है। और इसमें जीत किसी पार्टी की नहीं—देश के संविधान और मताधिकार की होनी चाहिए।


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