सम्पादकीय


*सम्पादकीय*
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*मौजूदगी की कदर किसी को नहीं*!!
*बाद में तस्वीरें देखकर रोते हैं लोग*!!
वक्त के साथ रक्त का सम्बन्ध भी बदल जाता है! इस मतलब परस्त दुनियां को बड़े ही चाव से रचा है विधाता ने! हर रोज बदलते सामाजिक नजारे को देखकर हैरत होती है! दिल रोता है!आत्मा कराहती है!जिस जगह जिससे परवरिश पाकर दुनियां की रंगीन महफ़िल में खुद के किरदार को निभाने का अवसर पाया वहीं समय बदलते ही बन गया पराया!
कितने दर्द के साथ उस चाहत की बस्ती में वह शख्स मोहब्बत का दरख्त लगाया होगा! कितने हसीन सपने रहे होंगे! कितनी घनेरी सोच रही होगी! मगर पल में ही सपनों का संसार जब टूट गया और अपनो की बदलती रंगत, व किस्मत के खेल की शतरंजी चाल में फंसकर जब ज़िन्दगी बेहाल हो गयी तब सारी सोच मोच खाकर तड़फड़ाने पर वीवस हो गयी। जब जीवन का खुशनुमा पल था सभी सकुशल थे!लेकिन ज्यों ही कड़कती दोपहरी के बाद रंगत बदली, संगत निभाने वाले सारे हसरत पर पानी फेरकर नफरत की जिस तस्बीर को पेश कीए देखकर होश फाख्ता हो गया! कितना अजीब मंजर है जब अपनों के हर लफ्ज़ से निकलता जहर है! मायूसी मुस्कराती है! दुर्भाग्य दहशत का पांव पसार देती है! जिसको अपना समझ कर भविष्य का सपना देखा था वहीं दुर्घटना का कारक बन गया! समय तो सबका बदलता है! सुबह के बाद शाम होना ही है यही तो प्रकृति का निश्चित नियम है! इसको कोई नहीं बदल सकता! लेकिन ज़िन्दगी की शाम होने के पहले ही दुर्भाग्य का जलजला आ जाए और मझधार में फंसीं ज़िन्दगी की नाव का पतवार टूट जाए तो बस मालिक का ही सहारा होता है! ऐसे में नसीब वाले को ही किनारा मिलता है? तेजी से बदलता सामाजिक परिवेश हर किसी के लिए तन्हाई का सन्देश लेकर आ रहा है! फर्क बस इतना कोई आज सिसक रहा है!कल कोई और सिसकेगा!काटना तो वहीं होगा न जो बोया गया है! आधुनिकता की चकाचौंध में सामाजिक नवचेतना का संस्कार तिरस्कार की दहलीज पर दम तोड रहा है! जिसको देखिए मतलब परस्ती की भाषा बोल रहा है। इस मतलबी वासनामई संसार में अधिकार सभी को पता है! लेकिन कर्तब्य के किरदार का पता नहीं।संस्कारों की पाठशाला चलाने वाली ममता की प्रतिमूर्ति की आधुनिक सोच ने बचपन से ही उस स्मृति की किताब में घृणा वैमनस्यता आपस में दुराव की इबारत तहरीर कर दी जो भविष्य के पटल पर विरोध की किताब बन कर‌ निकल रहा है।अब कहां अपनत्व है! कहां अब रिश्तों का मोल है! तन्हा जीवन का पथ चुनने वाले तन्हाई में ही सम्बृधि तलास रहे है! उस धन पर घमंड करते हैं जो कभी भी साथ नहीं जायेगा!,जिन अनमोल रिश्तों का अनादर कर सुख का गागर भरने का ख्वाब सजाते हैं वहीं ख्वाब एक दिन उनको उसी अश्कों के सैलाब में बहा देता है। जिसकी चपेट में आकर न जाने कितने अपनी हसरत लिए इस जहां को अलविदा कर गये!आजादी के बाद इस देश की शिक्षा पद्धति में जो आमूल चूल परिवर्तन किया गया तथा गद्दार सियासतदारो ने जो खेल किया और मैकाले की सोच का समर्थन किया उसी का परिणाम है आज सांस्कृतिक धरोहरों से परिपूर्ण तथा पुरातन संस्कारों से लबरेज भारतीय समाज पाश्चात्य सभ्यता का अनुगामी बन गया है!नतीजा सामने है संयुक्त परिवार का सर्वनाश हो गया। पुरातन गुरूकुल ब्यवस्था ,सनातनी आस्था, का समापन हो गया! घर घर कलह आम बात हो गया! रिश्तों की तिजारत में पारिवारिक महाभारत सामान्य बात हो गयी वर्तमान शिक्षा पद्धति ने भारतीय संस्कृतियों का विनाश कर दिया अब मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव: गुरू देवो भव: का फार्मूला खत्म हो चला है!आखरी पीढ़ी चल रही है जो बौद्धिक सम्पदा को अपने साथ लिए हमेशा हमेशा के लिए गुमनामी में समा रही क्यों की वर्तमान पीढ़ी उस पुरातन सम्बृध संस्कार को दकियानूसी मानती है! उस रास्ते पर चलने की सोचती भी नहीं है।।मां बाप को तिरस्कार का पुरस्कार अब नवीन संस्कार में शामिल हो गया!दिखावे का प्रचलन है !जब की भीतर हो रहा प्रतिदिन लंका दहन है!विकृत हो चुके समाज में खुद को अधिकृत कर लेने की परम्परा उफान पर है!तबाही का दौर शुरू हो चुका हिन्दुस्तान में है।कोई अपना नहीं सावधान सतर्क रहें! जीवन में जीवन्तता कायम रखने के लिए आखरी सफर के अन्त तक मजबूरी का सन्त बन जाना ही अब नियति बन चुकी है।


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